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बुझती हुई शमएँ होती हैं डूबे हुए तारे होते हैं | शाही शायरी
bujhti hui shaMein hoti hain Dube hue tare hote hain

ग़ज़ल

बुझती हुई शमएँ होती हैं डूबे हुए तारे होते हैं

मंज़ूर हुसैन शोर

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बुझती हुई शमएँ होती हैं डूबे हुए तारे होते हैं
महफ़िल के उजड़ने से पहले आसार ये सारे होते हैं

बरबाद-ए-मोहब्बत पर ऐसा इक दौर भी आ ही जाता है
आग़ोश में सूरज होता है पलकों पे सितारे होते हैं

ये ज़र्फ़ है ज़र्फ़-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र हर डूबने वाला क्या जाने
बे-बहर भी तूफ़ाँ उठते हैं बे-मौज भी धारे होते हैं

नज़्ज़ारा तो है बे-पर्दा मगर हर देखने वाला क्या देखे
जो ज़र्फ़-ए-नज़र में आ न सकें ऐसे भी नज़ारे होते हैं

तुग़्यान-ए-हवादिस की हमदम इतनी ही नवाज़िश क्या कम है
कश्ती न सही साहिल न सही तूफ़ाँ तो हमारे होते हैं