बुझी नहीं अभी ये प्यास भी ग़नीमत है
ज़बाँ पे काँटों का एहसास भी ग़नीमत है
रवाँ है साँस की कश्ती इसी के धारे पर
ये एक टूटी हुई आस भी ग़नीमत है
निशाँ नुमू के हैं कुछ तो बिसात-ए-सहरा पर
झुलसती जलती हुई घास भी ग़नीमत है
फिर इस के बा'द तुम्हारी शनाख़्त क्या होगी
रिवायतों की ये बू-बास भी ग़नीमत है
वो अब भी मिलता है अपनी अदा-ए-ख़ास के साथ
कि वज़्अ'-दारी का ये पास भी ग़नीमत है
ग़ज़ल
बुझी नहीं अभी ये प्यास भी ग़नीमत है
अरमान नज्मी