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बुझे लबों पे तबस्सुम के गुल सजाता हुआ | शाही शायरी
bujhe labon pe tabassum ke gul sajata hua

ग़ज़ल

बुझे लबों पे तबस्सुम के गुल सजाता हुआ

आलोक मिश्रा

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बुझे लबों पे तबस्सुम के गुल सजाता हुआ
महक उठा हूँ मैं तुझ को ग़ज़ल में लाता हुआ

उजाड़ दश्त से ये कौन आज गुज़रा है
गई रुतों की वही ख़ुशबुएँ लुटाता हुआ

तुम्हारे हाथों से छुट कर न जाने कब से मैं
भटक रहा हूँ ख़लाओं में टिमटिमाता हुआ

निगल न जाए कहीं बे-रुख़ी मुझे तेरी
कि रो पड़ा हूँ मैं अब के तुझे हँसाता हुआ

तू शाहज़ादी महकते हुए उजालों की
मैं एक ख़्वाब अँधेरों की चोट खाता हुआ

मिरा बदन ये किसी बर्फ़ के बदन सा है
पिघल न जाऊँ मैं तुझ को गले लगाता हुआ

तुम्हारी आँखों का पानी कहीं न बन जाऊँ
मैं डर रहा हूँ बहुत दास्ताँ सुनाता हुआ