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बुझे बुझे से शरारे मुझे क़ुबूल नहीं | शाही शायरी
bujhe bujhe se sharare mujhe qubul nahin

ग़ज़ल

बुझे बुझे से शरारे मुझे क़ुबूल नहीं

शकेब जलाली

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बुझे बुझे से शरारे मुझे क़ुबूल नहीं
सवाद-ए-शब में सितारे मुझे क़ुबूल नहीं

ये कोह-ओ-दश्त भी आईना-ए-बहार बने
फ़क़त चमन के नज़ारे मुझे क़ुबूल नहीं

तुम्हारे ज़ौक़-ए-करम पर बहुत हूँ शर्मिंदा
मुराद ये है सहारे मुझे क़ुबूल नहीं

मिसाल-ए-मौज समुंदर की सम्त लौट चलो
सुकूँ-ब-दोश किनारे मुझे क़ुबूल नहीं

मैं अपने ख़ूँ से जलाऊँगा रहगुज़र के चराग़
ये कहकशाँ ये सितारे मुझे क़ुबूल नहीं

'शकेब' जिस को शिकायत है खुल के बात करे
ढके-छुपे से इशारे मुझे क़ुबूल नहीं