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बुझे बुझे से चराग़ों से सिलसिला पाया | शाही शायरी
bujhe bujhe se charaghon se silsila paya

ग़ज़ल

बुझे बुझे से चराग़ों से सिलसिला पाया

शाहिद माहुली

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बुझे बुझे से चराग़ों से सिलसिला पाया
हुजूम-ए-यास में भटके तो रास्ता पाया

किसी ख़याल में उभरा उमीद का चेहरा
किसी उमीद में परतव ख़याल का पाया

न जाने कितने घरोंदों को टूटते देखा
किसी खंडर में तमन्ना का नक़्श-ए-पा पाया

तमाम रात नया बुत तराशते गुज़री
हुई जो सुब्ह तो उस बुत को टूटता पाया

क़दम क़दम पे मिले यूँ तो क़हक़हे बिखरे
दरून-ए-जिस्म कोई शख़्स चीख़ता पाया

तिलिस्म टूट गया धुँद छट गई 'शाहिद'
कहीं पे ठहर के सोचें कि हम ने क्या पाया