बुझाने में हवाओं की शरारत कम नहीं होती
मगर जलते हुए दीपक की शिद्दत कम नहीं होती
कोई जा के बता दे उन ज़रा नादान लोगो को
लगाने से कभी पहरे मोहब्बत कम नहीं होती
नशा ऐसा चढ़ा उल्फ़त का तेरी मुझ पे ऐ हमदम
अगर मैं चाह लूँ फिर भी मोहब्बत कम नहीं होती
मैं सुलझाती हूँ इक मुश्किल तो दूजी सामने आए
मेरी इस ज़िंदगी से क्यूँ मुसीबत कम नहीं होती
जिधर देखूँ वहीं चर्चा है मंदिर और मस्जिद का
जहाँ से सोचती हूँ क्यूँ जहालत कम नहीं होती
यही मैं प्रश्न करती हूँ अकेले बैठ कर 'ज्योति'
सबब क्या है ज़माने से ये नफ़रत कम नहीं होती

ग़ज़ल
बुझाने में हवाओं की शरारत कम नहीं होती
ज्योती आज़ाद खतरी