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बुझ गई शम-ए-हरम बाब-ए-कलीसा न खुला | शाही शायरी
bujh gai sham-e-haram bab-e-kalisa na khula

ग़ज़ल

बुझ गई शम-ए-हरम बाब-ए-कलीसा न खुला

मुस्तफ़ा ज़ैदी

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बुझ गई शम-ए-हरम बाब-ए-कलीसा न खुला
खुल गए ज़ख़्म के लब तेरा दरीचा न खुला

दर-ए-तौबा से बगूलों की तरह गुज़रे लोग
अब्र की तरह उमड आए जो मय-ख़ाना खुला

शहर-दर-शहर फिरी मिरी गुनाहों की बयाज़
बाज़ नज़रों पे मिरा सोज़-ए-हकीमाना खुला

नाज़नीनों में रसाई का ये आलम था कभी
लाख पहरों में भी दरवाज़े पे दरवाज़ा खुला

हम परी-ज़ादों में खेले शब-ए-अफ़्सूँ में पले
हम से भी तेरे तिलिस्मात का उक़्दा न खुला

एक इक शक्ल को देखा है बड़ी हसरत से
अजनबी कौन है और कौन शनासा न खुला

रेत पर फेंक गई अक़्ल की गुस्ताख़-लबी
फिर कभी कश्फ़-ओ-करामात का दरिया न खुला