बुझ गई दिल की रौशनी राह धुआँ धुआँ हुई
सुबह चले कहाँ से थे शाम हमें कहाँ हुई
शौक़ की राह-ए-पुर-ख़तर तय तो कर आए हम मगर
नज़्र-ए-हवादिस-ए-सफ़र दौलत-ए-जिस्म-ओ-जाँ हुई
इश्क़-ओ-जुनूँ के वारदात दीदा-ओ-दिल के सानेहात
बीती हुई हर एक बात दूर की दास्ताँ हुई
कोई भी अब नहीं रहा जिस को शरीक-ए-ग़म कहें
दौर-ए-तरब की याद भी शामिल-ए-रफ़्तगाँ हुई
लुट गई कैसे दफ़अ'तन रौशनियों की अंजुमन
आ के कहाँ से ख़ेमा-ज़न ज़ुल्मत-ए-बे-कराँ हुई
किस को ख़बर कि हम ने क्या ख़्वाब बने हैं उम्र-भर
किस से कहें कि ज़िंदगी किस लिए राएगाँ हुई
तर्ज़-ए-बयाँ तो बे-क़यास थे तिरे ग़म-ज़दों के पास
बोल उठी निगाह-ए-यास बंद अगर ज़बाँ हुई
ग़ज़ल
बुझ गई दिल की रौशनी राह धुआँ धुआँ हुई
मख़मूर सईदी