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बोसीदा सही ज़ेब-ए-क़बा तक नहीं आती | शाही शायरी
bosida sahi zeb-e-qaba tak nahin aati

ग़ज़ल

बोसीदा सही ज़ेब-ए-क़बा तक नहीं आती

आमिर नज़र

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बोसीदा सही ज़ेब-ए-क़बा तक नहीं आती
बे-पैरहन-ए-जाँ को हया तक नहीं आती

आईना अजल का यूँ तह-ए-ख़ाक पड़ा है
मरक़द की फ़सीलों से ज़िया तक नहीं आती

गुम-कर्दा-ए-इदराक में पैवस्त जबीनें
दर-चश्म-ए-यक़ीं बू-ए-वफ़ा तक नहीं आती

सहरा की जबीनों पे हो शादाबी तो कैसे
इन शो'लों पे शबनम की रिदा तक नहीं आती

दिल रिफ़अत-ए-दस्तार की क़ामत पे मगन है
बे-ताबी-ए-मंज़िल कफ़-ए-पा तक नहीं आती

हंगामा-ए-औक़ात भी है रक़्स-ए-फ़ुसूँ भी
इम्कान की चौखट पे सदा तक नहीं आती