बोसीदा जिस्म-ओ-जाँ की क़बाएँ लिए हुए
सहरा में फिर रहा हूँ बलाएँ लिए हुए
दिल वो अजीब शहर कि जिस की फ़सील पर
नाज़िल हुआ है इश्क़ बलाएँ लिए हुए
मैं वहशत-ए-जुनूँ हूँ मिरी मुश्त-ए-ख़ाक को
फिरती हैं दर-ब-दर ये हवाएँ लिए हुए
देखा बग़ौर अपनी ख़ुदी का जो आइना
उभरे हज़ार चेहरे ख़ताएँ लिए हुए
इक शोर गूँजता है मुसलसल ख़लाओं में
है लफ़्ज़-ए-कुन भी कितनी सदाएँ लिए हुए
ग़ज़ल
बोसीदा जिस्म-ओ-जाँ की क़बाएँ लिए हुए
आस मोहम्मद मोहसिन