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बोझ उठाए हुए दिन रात कहाँ तक जाता | शाही शायरी
bojh uThae hue din raat kahan tak jata

ग़ज़ल

बोझ उठाए हुए दिन रात कहाँ तक जाता

दिलावर अली आज़र

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बोझ उठाए हुए दिन रात कहाँ तक जाता
ज़िंदगानी में तिरे साथ कहाँ तक जाता

मुख़्तसर ये कि मैं बोसा भी ग़नीमत समझा
यूँ भी दौरान-ए-मुलाक़ात कहाँ तक जाता

सुब्ह होते ही सभी घर को रवाना होंगे
क़िस्सा-ए-दौर-ए-ख़राबात कहाँ तक जाता

थक गया था मैं तिरे नाम को जपते जपते
ले के होंटों पे यही बात कहाँ तक जाता

चाँद तारे तो मिरे बस में नहीं हैं 'आज़र'
फूल लाया हूँ मिरा हाथ कहाँ तक जाता