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बिसात-ए-शौक़ के मंज़र बदलते रहते हैं | शाही शायरी
bisat-e-shauq ke manzar badalte rahte hain

ग़ज़ल

बिसात-ए-शौक़ के मंज़र बदलते रहते हैं

ज़ाहिद फ़ारानी

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बिसात-ए-शौक़ के मंज़र बदलते रहते हैं
हवा के रंग बराबर बदलते रहते हैं

बुतान-ए-रंग भी कुछ कम नहीं हयूलों से
क़दम क़दम पे ये पैकर बदलते रहते हैं

छुपाए छुपती नहीं उन से कोहनगी दिल की
नए लिबास वो हर-दम बदलते रहते हैं

रही नहीं कभी यक-रंग आसमाँ की जबीं
हुरूफ़-ए-लौह-ए-मुक़द्दर बदलते रहते हैं

क़याम करता नहीं दिल में चार दिन कोई
मकीन ख़ाना-ए-बे-दर बदलते रहते हैं

बहुत नया था जो कल अब वही पुराना है
मज़ार-ए-दहर के पत्थर बदलते रहते हैं