बिसात-ए-दानिश-ओ-हर्फ़-ओ-हुनर कहाँ खोलें
ये सोचते हैं लब-ए-मो'तबर कहाँ खोलें
अजब हिसार हैं सब अपने गिर्द खींचे हुए
वजूद की वही दीवार दर कहाँ खोलीं
पड़ाव डालें कहाँ रास्ते में शाम हुई
भँवर हैं सामने रख़्त-ए-सफ़र कहाँ खोलें
यहाँ शुऊ'र के नाख़ुन तो हम भी रखते हैं
मगर ये उक़्दा-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र कहाँ खोलें
न इस के साथ हमारा भी मोल होने लगे
हैं कश्मकश में कि मुश्त-ए-गुहर कहाँ खोलें
हवा है तेज़ न इस के वरक़ उड़ा ले जाए
सहीफ़ा-ए-नफ़स-ए-मुख़्तसर कहाँ खोलें
बचाएँ आबरू जिस्मों की भीड़ में कैसे
है खोलनी गिरह-ए-जाँ मगर कहाँ खोलें
कोई 'फ़ज़ा' तो मिले हम को क़ाबिल-ए-परवाज़
अब इन हदों में भला बाल-ओ-पर कहाँ खोलें
ग़ज़ल
बिसात-ए-दानिश-ओ-हर्फ़-ओ-हुनर कहाँ खोलें
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी