बिन तिरे क्या कहें क्या रोग हमें यार लगा
डर लगे नाम लिए जिस का वो आज़ार लगा
सब ये कहते हैं मुझे तुझ से जो दिल यार लगा
हाए क्या इस को जवानी में ये आज़ार लगा
हम दिवानों का ये है दश्त-ए-जुनूँ में रुत्बा
कि क़दम रखते ही आ पाँव से हर ख़ार लगा
कहिए क्यूँकर न उसे बादशह-ए-किश्वर-ए-हुस्न
कि जहाँ जा के वो बैठा वहीं दरबार लगा
क़द्र फिर अपनी हो क्या उस के ख़रीदारों में
रोज़-ओ-शब जिस की गली में रहे बाज़ार लगा
कौन सा दिन वो कटा मुझ पे कि ऐ तेग़-ए-फ़िराक़
ज़ख़्म इक ताज़ा मिरे दिल पे न हर बार लगा
दिल में अब उस के जो लहर आई है घर जाने की
तू भी रोने की झड़ी दीदा-ए-ख़ूँ-बार लगा
मुत्तसिल तू जो मिरा ख़ून-ए-जिगर पीता है
क्यूँ ग़म-ए-इश्क़ ये क्या तुझ को मज़ेदार लगा
तेज़-दस्ती-ए-जुनूँ आज है ऐसी ही कि बस
न रहा अपने गरेबाँ में कोई तार लगा
इस ज़मीं में ग़ज़ल इक और भी पढ़ ऐ 'जुरअत'
ख़ूब अंदाज़ के अब कहने तू अशआर लगा
ग़ज़ल
बिन तिरे क्या कहें क्या रोग हमें यार लगा
जुरअत क़लंदर बख़्श