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बिला-जवाज़ नहीं है फ़लक से जंग मिरी | शाही शायरी
bila-jawaz nahin hai falak se jang meri

ग़ज़ल

बिला-जवाज़ नहीं है फ़लक से जंग मिरी

दानियाल तरीर

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बिला-जवाज़ नहीं है फ़लक से जंग मिरी
अटक गई है सितारे में इक पतंग मिरी

फिर एक रोज़ मिरे पास आ कर उस ने कहा
ये ओढ़नी ज़रा क़ौस-ए-क़ुज़ह से रंग मिरी

जो काएनात किनारे से जा के मिल जाए
वही फ़राग़-तलब है ज़मीन तंग मिरी

मैं चीख़ते हुए सहरा में दूर तक भागा
न जाने रेत कहाँ ले गई उमंग मिरी

फ़ना की सुर्ख़ दोपहरों में रक़्स जारी था
रगें निचोड़ रहे थे रबाब-ओ-चंग मिरी

लहू की बूँद गिरी रौशनी का फूल खिला
फिर उस के बा'द कोई और थी तरंग मिरी