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बिखरे हुए तारों से मिरी रात भरी है | शाही शायरी
bikhre hue taron se meri raat bhari hai

ग़ज़ल

बिखरे हुए तारों से मिरी रात भरी है

शहज़ाद अहमद

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बिखरे हुए तारों से मिरी रात भरी है
ये नूर है या नूर की दरयूज़ा-गरी है

है आज भी पहलू में वही ज़ख़्म-ए-बहाराँ
अब तक मिरी आँखों में हर इक शाख़ हरी है

दुनिया में अंधेरों के सिवा और रहा क्या
इक तेरी तमन्ना सो चराग़-ए-सहरी है

अब साथ न दे पाएँगे टूटे हुए बाज़ू
उड़ते हुए लम्हों से मिरी हम-सफ़री है

हर लहज़ा बदलती हुई आँखों पे न जाओ
दिल के लिए उम्मीद-ए-फ़ज़ा बे-ख़बरी है

जल्वे की बसीरत को समझती नहीं आँखें
आईने का मक़्दूर परेशाँ-नज़री है

उड़ते हुए आते हैं अभी संग-ए-तमन्ना
और कार-गह-ए-दिल की वही शीशागरी है

चुप-चाप दरीचों की तरफ़ देखते फिरना
ज़िंदा हैं तो 'शहज़ाद' यही दर-बदरी है