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बिखरे बिखरे सहमे सहमे रोज़ ओ शब देखेगा कौन | शाही शायरी
bikhre bikhre sahme sahme roz o shab dekhega kaun

ग़ज़ल

बिखरे बिखरे सहमे सहमे रोज़ ओ शब देखेगा कौन

मेराज फ़ैज़ाबादी

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बिखरे बिखरे सहमे सहमे रोज़ ओ शब देखेगा कौन
लोग तेरे जुर्म देखेंगे सबब देखेगा कौन

हाथ में सोने का कासा ले के आए हैं फ़क़ीर
इस नुमाइश में तिरा दस्त-ए-तलब देखेगा कौन

ला उठा तेशा चटानों से कोई चश्मा निकाल
सब यहाँ प्यासे हैं तेरे ख़ुश्क लब देखेगा कौन

दोस्तों की बे-ग़रज़ हमदर्दियाँ थक जाएँगी
जिस्म पर इतनी ख़राशें हैं कि सब देखेगा कौन

शायरी में 'मीर' ओ 'ग़ालिब' के ज़माने अब कहाँ
शोहरतें जब इतनी सस्ती हों अदब देखेगा कौन