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बिखरा हूँ जब मैं ख़ुद यहाँ कोई मुझे गिराए क्यूँ | शाही शायरी
bikhra hun jab main KHud yahan koi mujhe girae kyun

ग़ज़ल

बिखरा हूँ जब मैं ख़ुद यहाँ कोई मुझे गिराए क्यूँ

अजय सहाब

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बिखरा हूँ जब मैं ख़ुद यहाँ कोई मुझे गिराए क्यूँ
पहले से राख राख हूँ फिर भी कोई बुझाए क्यूँ

ईसा न वो नबी कोई अदना सा आदमी कोई
फिर भी सलीब-ए-दर्द को सर पे कोई उठाएँ क्यूँ

सारे जो ग़म-गुसार थे कब के रक़ीब बन चुके
ऐसे में दोस्तों कोई अपना ये ग़म सुनाए क्यूँ

यकता वो ज़ात-ए-अकबरी दिल ये हक़ीरो असग़री
इतनी वसीअ' शय भला दिल में मिरे समाए क्यूँ

पलता हमारे ख़ूँ से है इश्क़ मगर अदू से है
अपना नहीं जो बेवफ़ा हम को यूँ आज़माए क्यूँ

सुब्ह का वक़्त आए तो ख़ुद ही बुझेगा ये चराग़
इस को सहर से पेशतर कोई मगर बुझाए क्यूँ

जिस पर गिरी है बर्क़ भी जिस पे हवा की है नज़र
शाख़ों में ऐसी ऐ 'सहाब' घर भी कोई बनाए क्यूँ