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बिखेरूँ रंग ख़ुशबू को मसल दूँ | शाही शायरी
bikherun rang KHushbu ko masal dun

ग़ज़ल

बिखेरूँ रंग ख़ुशबू को मसल दूँ

मुनव्वर अज़ीज़

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बिखेरूँ रंग ख़ुशबू को मसल दूँ
मिले जो फूल चेहरा नोच डालूँ

जवाँ हो कर भी बच्चों की सी आदत
खिलौनों से अभी तक खेलता हूँ

समुंदर में हूँ मौज-ए-मुज़्तरिब सा
मगर सहराओं जैसी प्यास रख्खूँ

वो मुझ में ढल रहा है और मैं उस में
ख़ुद अपना सा कोई लहजा टटोलूँ

मिज़ाज-ए-गुल-परस्ती गुदगुदाए
शमीम-ए-गुल पे उस का नाम लिक्खूँ