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बिखरते टूटते लम्हों को अपना हम-सफ़र जाना | शाही शायरी
bikharte TuTte lamhon ko apna ham-safar jaana

ग़ज़ल

बिखरते टूटते लम्हों को अपना हम-सफ़र जाना

मख़मूर सईदी

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बिखरते टूटते लम्हों को अपना हम-सफ़र जाना
कि था इस राह में आख़िर हमें ख़ुद भी बिखर जाना

सर-ए-दोश-ए-हवा इक अब्र-पारे की तरह हम हैं
किसी झोंके से पूछेंगे कि है हम को किधर जाना

दिल-ए-आवारा क्या पाबन्द-ए-ज़ंजीर-ए-तअल्लुक़ हो
न था बस में किसी के भी हवा को क़ैद कर जाना

पास-ए-ज़ुल्मत कोई सूरज हमारा मुंतज़िर होगा
इसी इक वहम को हम ने चिराग़-ए-रह-गुज़र जाना

हमें तो साथ देना है रफ़ीक़ान-ए-तलातुम का
मुबारक तुझ को तन्हा इस नदी के पार उतर जाना

मिरे जलते हुए घर की निशानी बस यही होगी
जहाँ इस शहर में कुछ रौशनी देखो ठहर जाना

सुहाने मौसमों की याद सिखलाया तुझे किस ने
उफ़ुक़ पर दीदा ओ दिल के धनक बन कर बिखर जाना

हिसार-ए-ज़ब्त में रह कर मआल-ए-हसरत-ए-दिल क्या
किसी क़ैदी परिंदे की तरह घुट घुट के मर जाना

दयार-ए-खामुशी से कोई रह रह कर बुलाता है
हमें 'मख़मूर' इक दिन है उसी आवाज़ पर जाना