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बिखर जाएगी शाम आहिस्ता बोलो | शाही शायरी
bikhar jaegi sham aahista bolo

ग़ज़ल

बिखर जाएगी शाम आहिस्ता बोलो

शानुल हक़ हक़्क़ी

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बिखर जाएगी शाम आहिस्ता बोलो
तड़क जाएँगे जाम आहिस्ता बोलो

न दो दाग़ों के भेद आहों को रोको
न लो नालों का नाम आहिस्ता बोलो

न ले तन्हाई की रातों में इक दिन
ख़मोशी इंतिक़ाम आहिस्ता बोलो

यही होते हैं आदाब-ए-मोहब्बत
कि जब लो उस का नाम आहिस्ता बोलो

न जाने कौन बैठा हो कमीं में
अँधेरी है ये शाम आहिस्ता बोलो

फ़ुग़ान-ए-दिल से किस का दिल पसीजा
ये है सौदा-ए-ख़ाम आहिस्ता बोलो

अभी तो राह में दीवार-ओ-दर हैं
अभी दो चार गाम आहिस्ता बोलो

बहुत है सदमा-ए-यक-आह उस को
है नाज़ुक ये निज़ाम आहिस्ता बोलो

अभी तो बादा-ए-उल्फ़त का 'हक़्क़ी'
पिया है एक जाम आहिस्ता बोलो