बिखर जाए न मेरी दास्ताँ तहरीर होने तक
ये आँखें बुझ न जाए ख़्वाब की ताबीर होने तक
चलाए जा अभी तेशा क़लम का कोह-ए-ज़ुलमत पर
सियाही वक़्त भी लेती है जू-ए-शीर होने तक
इसी ख़ातिर मिरे अशआ'र अब तक डाइरी में हैं
किसी आलम में जी लेंगे ये आलमगीर होने तक
तिरे आग़ाज़ से पहले यहाँ जुगनू चमकते थे
ये बस्ती मुफ़लिसों की थी तिरी जागीर होने तक
मुझे तंज़-ओ-मलामत की बड़ी दरकार है यूँ भी
अना को शान भी तो चाहिए शमशीर होने तक
मोहब्बत आख़िरश ले आई है इक बंद कमरे में
तेरी तस्वीर अब देखूँगा ख़ुद तस्वीर होने तक
ग़ज़ल
बिखर जाए न मेरी दास्ताँ तहरीर होने तक
मयंक अवस्थी