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बिजली की ज़द में एक मिरा आशियाँ नहीं | शाही शायरी
bijli ki zad mein ek mera aashiyan nahin

ग़ज़ल

बिजली की ज़द में एक मिरा आशियाँ नहीं

ग़नी एजाज़

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बिजली की ज़द में एक मिरा आशियाँ नहीं
वो कौन सी ज़मीं है जहाँ आसमाँ नहीं

बुलबुल को ग़म है गुल के निगहबाँ नहीं रहे
गुलचीं है ख़ुश कि अब कोई दामन-कशाँ नहीं

मंज़िल का मिलना ज़ौक़-ए-तजस्सुस की मौत है
अच्छा है जो हयात मिरी कामराँ नहीं

चश्म-ए-करम नहीं निगह-ए-ख़शमगीं तो है
ना-मेहरबाँ तो हैं वो अगर मेहरबाँ नहीं

वो अपनी अपनी तर्ज़-ए-तकल्लुम की बात है
गुल महव-ए-गुफ़्तुगू हैं गो मुँह में ज़बाँ नहीं