बीते बरस की याद का पैकर उतार दे
दीवार से पुराना कैलेंडर उतार दे
रख दी है उस ने खोल के ख़ुद जिस्म की किताब
सादा वरक़ पे ले कोई मंज़र उतार दे
भीगा हुआ लिबास बदन भी जलाएगा
उस से कहो कि सर से वो गागर उतार दे
दोनों में एक को तो मिलीं सुख की साअतें
ला अपना बोझ भी मिरे सर पर उतार दे
फिर क्या करोगे है तो उसी का बुना हुआ
कह दे अगर वो ला ये स्वेटर उतार दे
यूँ झनझना के टूटता तारा बिखर गया
जैसे उरूस-ए-शब कोई ज़ेवर उतार दे
चाहे है जान-ओ-माल की जो ख़ैरियत 'नज़र'
शहर-ए-हवस से दूर ही लश्कर उतार दे
ग़ज़ल
बीते बरस की याद का पैकर उतार दे
प्रेम कुमार नज़र