बीत गया है प्यार का मौसम घर घर सहरा जैसा है
दिल के दरवाज़े पर अब तो ख़ामोशी का पहरा है
सात समुंदर पार जो आ कर दश्त-ए-फ़ज़ा को देखा है
रेत का मंज़र आँखों में है दिल में ख़ौफ़ का दरिया है
उस की कश्ती डूब गई थी बीच भँवर में आ के मगर
किस मुश्किल से जान बचा कर साहिल तक वो आया है
ज़ुल्मत की राहों में हम भी गुम हो कर रह जाते मगर
नूर का पैकर साथ हमारे आगे आगे चलता है
भूल गया हूँ सब कुछ 'सालिम' मुझ को कुछ भी याद नहीं
यादों के आईने में अब इक इक चेहरा धुँदला है

ग़ज़ल
बीत गया है प्यार का मौसम घर घर सहरा जैसा है
मोहम्मद सालिम