EN اردو
बिगाड़ में भी बनाओ है आदमी के लिए | शाही शायरी
bigaD mein bhi banao hai aadmi ke liye

ग़ज़ल

बिगाड़ में भी बनाओ है आदमी के लिए

ऐन सलाम

;

बिगाड़ में भी बनाओ है आदमी के लिए
उजड़ रहा हूँ मैं इक ताज़ा ज़िंदगी के लिए

बदल गए हैं ज़माने के साथ हुस्न के तौर
कुछ और चाहते अब रस्म-ए-आशिक़ी के लिए

ये सोच कर कि इनायत किया हुआ है तिरा
दुआ न माँगी कभी दर्द में कमी के लिए

मुलाहिज़ा हो ये ईसार-ए-फूल हँस हँस कर
उजड़ रहा है कली की शगुफ़्तगी के लिए

गुमान तक में न थीं जिब्रईल के जो कभी
वो रिफ़अतें हैं यक़ीन आज आदमी के लिए

पिला के ज़हर ही बे-गाना-ए-दो-आलम को
तरस गया हूँ मैं थोड़ी सी बे-ख़ुदी के लिए

कुछ और तेग़-ए-वफ़ा ज़हर में बुझाए जा
यही है आब-ए-हयात आज ज़िंदगी के लिए