बिछ्ड़ें तो शहर भर में किसी को पता न हो
तुम को भी कुछ मलाल हमें भी गिला न हो
मज्लिस कि ख़्वाब-गाह जहाँ भी नज़र मिली
उन को यही था ख़ौफ़ कोई देखता न हो
जिन हादसों की आग से दामान-ए-दिल जला
मुमकिन नहीं चराग़-ए-सुख़न भी जला न हो
मेरी ग़ज़ल में जैसा तरन्नुम है सोज़ है
अक्सर हुआ गुमाँ कि उसी की सदा न हो
उन से अलग हुआ तो यही फ़िक्र है 'नईम'
उन का तपाक-ओ-मेहर कहीं वाक़िआ' न हो
ग़ज़ल
बिछ्ड़ें तो शहर भर में किसी को पता न हो
हसन नईम