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बिछड़ के तुझ से किसी दूसरे पे मरना है | शाही शायरी
bichhaD ke tujhse kisi dusre pe marna hai

ग़ज़ल

बिछड़ के तुझ से किसी दूसरे पे मरना है

असअ'द बदायुनी

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बिछड़ के तुझ से किसी दूसरे पे मरना है
ये तजरबा भी इसी ज़िंदगी में करना है

हवा दरख़्तों से कहती है दुख के लहजे में
अभी मुझे कई सहराओं से गुज़रना है

मैं मंज़रों के घनेपन से ख़ौफ़ खाता हूँ
फ़ना को दस्त-ए-मोहब्बत यहाँ भी धरना है

तलाश-ए-रिज़्क़ में दरिया के पंछियों की तरह
तमाम उम्र मुझे डूबना उभरना है

उदासियों के ख़द-ओ-ख़ाल से जो वाक़िफ़ हो
इक ऐसे शख़्स को अक्सर तलाश करना है