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बिछड़ के भी मिला रुस्वाइयों का क़हर तुझे | शाही शायरी
bichhaD ke bhi mila ruswaiyon ka qahr tujhe

ग़ज़ल

बिछड़ के भी मिला रुस्वाइयों का क़हर तुझे

मुसव्विर सब्ज़वारी

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बिछड़ के भी मिला रुस्वाइयों का क़हर तुझे
छुपा सका न तिरे आँसुओं का शहर तुझे

ये चढ़ती धूप का मल्बूस उतार दे सर-ए-शाम
उतरती धूप में अब देखता है शहर तुझे

हर एक सैल-ए-सदा को तू कर गया पायाब
डुबो सकी न मिरी चाहतों की नहर तुझे

बिखरती किरनों को आँगन में थामने वाले
मह-ए-तमाम का पीना पड़ेगा ज़हर तुझे

तू छोड़ आया जिसे डूबते जज़ीरे में
दिखाई देगा वही चेहरा लहर लहर तुझे

बदन को तोड़ के बाहर निकल भी आ किसी शब
हिसार-ए-जिस्म में जीने न देगा दहर तुझे

'मुसव्विर' उस का मुदावा भी तू ने कुछ सोचा
वो रोग जो लिए फिरता है शहर शहर तुझे