बिछड़ गया है तो अब उस से कुछ गिला भी नहीं
कि सच तो ये है वो इक शख़्स मेरा था भी नहीं
मैं चाहता हूँ उसे और चाहने के सिवा
मिरे लिए तो कोई और रास्ता भी नहीं
अजीब राहगुज़र थी कि जिस पे चलते हुए
क़दम रुके भी नहीं रास्ता कटा भी नहीं
धुआँ सा कुछ तो मियाँ बर्फ़ से भी उठता है
सो दिल-जलों का ये ऐसा कोई पता भी नहीं
रगों में जमते हुए ख़ून की तरह है 'सऊद'
वो हर्फ़-ए-हिज्र जो उस ने अभी कहा भी नहीं
ग़ज़ल
बिछड़ गया है तो अब उस से कुछ गिला भी नहीं
सऊद उस्मानी