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भूले से कभी मेरी जानिब जब उन की नज़र हो जाती है | शाही शायरी
bhule se kabhi meri jaanib jab unki nazar ho jati hai

ग़ज़ल

भूले से कभी मेरी जानिब जब उन की नज़र हो जाती है

शौक़ बिजनौरी

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भूले से कभी मेरी जानिब जब उन की नज़र हो जाती है
हंगामे बपा हो जाते हैं आलम को ख़बर हो जाती है

मेरी शब-ए-फ़ुर्क़त की ज़ुल्मत मरहून-ए-तजल्ली हो न सकी
होगी वो किसी के वस्ल की शब जिस शब की सहर हो जाती है

कुछ दिन ऐसे भी आते हैं काटे से नहीं जो कटते हैं
कुछ ऐसी भी रातें आती हैं बातों में सहर हो जाती है

शमशाद खड़ा मुँह तकता है हैरानी-ए-नर्गिस क्या कहिए
गुलज़ार में जब वो आता है उस गुल को नज़र हो जाती है

ए'जाज़-ए-तजल्ली तो देखो वो सामने जब आ जाते हैं
बेताबी-ए-दिल बढ़ जाती है तस्कीन-ए-जिगर हो जाती है

मयख़ाने में सब कुछ मिलता है ये शैख़-ओ-बरहमन क्या जानें
यूँ दैर-ओ-हरम के झगड़ों में इक उम्र बसर हो जाती है

वो शौक़ भरी नज़रें उठ कर इक हश्र बपा कर देती हैं
दुनिया-ए-मोहब्बत की हर शय तब ज़ेर-ओ-ज़बर हो जाती है

जब शौक़ की आँखों में रक़्साँ कौनैन के जल्वे होते हैं
मंज़िल वहीं ख़ुद खिंच आती है तकमील-ए-सफ़र हो जाती है