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भूले से भी न जानिब-ए-अग़्यार देखना | शाही शायरी
bhule se bhi na jaanib-e-aghyar dekhna

ग़ज़ल

भूले से भी न जानिब-ए-अग़्यार देखना

अमीरुल्लाह तस्लीम

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भूले से भी न जानिब-ए-अग़्यार देखना
शर्त-ए-वफ़ा यही है ख़बरदार देखना

मानिंद-ए-शम्अ बैठ के तय की रह-ए-अदम
यारो मोजज़ा है कि रफ़्तार देखना

कहती है रूह दिल से दम-ए-नज़अ होशियार
हम तो अदम को जाते हैं घर-बार देखना

अल्लाह रे इज़्तिराब-ए-तमन्ना-ए-दीद-ए-यार
फ़ुर्सत में इक निगाह की सौ बार देखना

'तस्लीम' रू-ए-यार को हसरत की आँख से
अच्छा नहीं है शौक़ में हर बार देखना