भूले हुए हैं सब कि है कार-ए-जहाँ बहुत
लेकिन वो एक याद है दिल पर गराँ बहुत
कुछ रफ़्तगाँ के ग़म ने भी रक्खा हमें निढाल
कुछ सदमा-हा-ए-नौ से रहे नीम-जाँ बहुत
हम को न ज़ुल्फ़-ए-यार न दीवार से ग़रज़
हम को तो याद-ए-यार की परछाइयाँ बहुत
वो सर्द-मेहरियाँ कि हमें राख कर गईं
सुनते हैं पहले हम भी थे आतिश-बजाँ बहुत
इक मौज-ए-फ़ित्ना-सर कि रवाँ हर नफ़स में है
हर दम यक़ीं से पहले उठे हैं गुमाँ बहुत
अब के जुनूँ में मौज-ए-सबा का भी हाथ है
मौज-ए-सबा कि अब के उठी सरगिराँ बहुत
अब ये ख़बर नहीं वो समुंदर है या सराब
अपने यहाँ है तिश्नगी-ए-जिस्म-ओ-जाँ बहुत
सहरा से वर्ना अपना इलाक़ा नहीं है कुछ
आशुफ़्तगी-ए-सर की हवा है यहाँ बहुत
ग़ज़ल
भूले हुए हैं सब कि है कार-ए-जहाँ बहुत
अासिफ़ जमाल