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भूला है बा'द-ए-मर्ग मुझे दोस्त याँ तलक | शाही शायरी
bhula hai baad-e-marg mujhe dost yan talak

ग़ज़ल

भूला है बा'द-ए-मर्ग मुझे दोस्त याँ तलक

गोया फ़क़ीर मोहम्मद

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भूला है बा'द-ए-मर्ग मुझे दोस्त याँ तलक
सग भी न उस का आया मिरी उस्तुख़्वाँ तलक

गो हम क़फ़स से जा न सके बोस्ताँ तलक
उड़ उड़ के रंग-ए-चेहरा गया पर वहाँ तलक

बुलबुल हुजूम-ए-गुल है चमन में यहाँ तलक
फूलों से छा गया है तिरा आशियाँ तलक

कब पहुँची आह ज़ोफ़ से गोश-ए-बुताँ तलक
सौ जा ठहर के सीने से आई ज़बाँ तलक

पर्वाज़ पेश अज़ीं थी मिरी आसमाँ तलक
अब तो चमन से जा न सकूँ आशियाँ तलक

ऐसा किया ज़ईफ़ ग़म-ए-इंतिज़ार ने
आँखों को मेरी बार है ख़्वाब-ए-गिराँ तलक

आलिम हूँ इल्म-ए-इश्क़ का मैं कर न हम-सरी
ऐ अंदलीब तू है पड़ी बोस्ताँ तलक

उस मह के वस्फ़ से ये हुआ मर्तबा बुलंद
पहुँची मिरी ग़ज़ल की ज़मीं आसमाँ तलक

पास-ए-अदब रहा है जुनूँ में भी इस क़दर
आता हूँ सज्दे करता तिरे आस्ताँ तलक

उस मस्त के हैं गेसूओं के सिलसिले में हम
साक़ी मुरीद जिस का है पीर-ए-मुग़ाँ तलक

रक्खें अदब से पाँव न हम तेरी राह में
बाहर जब आप से हों तो पहुँचें वहाँ तलक

फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ में गुल का तो आना मुहाल है
बिजली ही काश आए मिरी आशियाँ तलक

क्यूँकर न सर फिरे मिरा उस तेग़ के लिए
गर्दिश सी जुस्तुजू में है मर्ग-ए-निशाँ तलक

सौ बार अपनी फ़िक्र अदम से परे गई
लेकिन न पहुँची यार के मु-ए-बयाँ तलक

उस हूर का मकान है जन्नत से भी परे
रिज़वाँ पहुँच सके न कभी पासबाँ तलक

इस दर्जा फ़र्त-ए-ज़ोफ़ से हम पीछे रह गए
पहुँची न आह भी जरस-ए-कारवाँ तलक

दिल में हमारे उस की मोहब्बत ने घर किया
पहुँचा है इस मकान से जो ला-मकाँ तलक

अल्लाह रे दिमाग़ ज़रा देख ऐ हुमा
आया न बे-तलब सग-ए-यार उस्तुख़्वाँ तलक

उस माह ने जो सर मिरा ठुकराया पाँव से
पहुँचा दिमाग़ आज मिरा आसमाँ तलक

नख़्ल-ए-मुराद-ए-यार हुआ आज बारवर
सद शुक्र कट के सर मिरा पहुँचा सिनाँ तलक

फिर जाए तीर आ के वो बरगश्ता बख़्त हूँ
रुख़ फेरे देख कर मुझे उस की कमाँ तलक

मरने के ब'अद है सग-ए-जानाँ का इंतिज़ार
कह दो हुमा न आए मिरी उस्तुख़्वाँ तलक

सौ बार आ के मौत भी फ़ुर्क़त में फिर गए
बरगश्तगी नसीब की कहिए कहाँ तलक

'गोया' ये ना-तवानी का एहसान मुझ पे है
आने दिया न यार का शिकवा ज़बाँ तलक