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भूल न उस को धुन है जिधर की चौंक मुसाफ़िर रात नहीं है | शाही शायरी
bhul na usko dhun hai jidhar ki chaunk musafir raat nahin hai

ग़ज़ल

भूल न उस को धुन है जिधर की चौंक मुसाफ़िर रात नहीं है

शाद अज़ीमाबादी

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भूल न उस को धुन है जिधर की चौंक मुसाफ़िर रात नहीं है
शक्ल नुमायाँ होगी सहर की चौंक मुसाफ़िर रात नहीं है

आँखें मलते सेहन-ए-चमन में झूम के उट्ठे नींद के माते
देख सबा ने आ के ख़बर की चौंक मुसाफ़िर रात नहीं है

नीले नीले रंग के ऊपर बढ़ती ही जाती है सफ़ेदी
हो गई रंगत ज़र-ओ-क़मर की चौंक मुसाफ़िर रात नहीं है

ज़ोर न ताक़त संग न साथी पाँव से अपने आप है चलना
तुझ पे है भारी राह-ए-सफ़र की चौंक मुसाफ़िर रात नहीं है

तुझ पे मैं क़ुर्बां जानी प्यारे हम-नफ़स-ओ-हम-दर्द हमारे
तुझ से है उल्फ़त मैं ने ख़बर की चौंक मुसाफ़िर रात नहीं है

पँख-पखेरू ख़्वाब से चौंके सब ने ख़ुशी के नारे मारे
आई सदा मुर्ग़ान-ए-सहर की चौंक मुसाफ़िर रात नहीं है

कूच की साअ'त आ गई सर पर 'शाद' उठा ले झोली-बिस्तर
नींद में सारी रात बसर की चौंक मुसाफ़िर रात नहीं है