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भूल कर हरगिज़ न लेते हम ज़बाँ से नाम-ए-इश्क़ | शाही शायरी
bhul kar hargiz na lete hum zaban se nam-e-ishq

ग़ज़ल

भूल कर हरगिज़ न लेते हम ज़बाँ से नाम-ए-इश्क़

ज़हीर देहलवी

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भूल कर हरगिज़ न लेते हम ज़बाँ से नाम-ए-इश्क़
गर नज़र आता हमें आग़ाज़ में अंजाम-ए-इश्क़

वाए क़िस्मत दिल लगाते ही जुदाई हो गई
सुब्ह होते ही हुई नाज़िल बला-ए-शाम-ए-इश्क़

नासेह-ए-नादाँ तिरी क़िस्मत में ये वक़अत कहाँ
ख़ुश-नसीबों के लिए है ज़िल्लत-ओ-दुश्नाम-ए-इश्क़

हाल मेरा सुन के पैग़ामी से वो कहने लगे
गर न थी ताब-ए-जुदाई क्यूँ लिया था नाम-ए-इश्क़