भूक से बच्चे बिलकते हैं न जाने कितने
और पानी में बहा देते हैं दाने कितने
इक तमन्ना का हुआ ख़ून तो क्या ग़म ऐ दोस्त
दफ़्न हैं सीने में अरमान न जाने कितने
कभी औरों की कभी अपनी हिमाक़त के तुफ़ैल
हाथ आते रहे हँसने के बहाने कितने
ज़िंदगी एक हक़ीक़त भी है अफ़्साना भी
हर गली-कूचे में बिखरे हैं फ़साने कितने
इक गुल-ए-ताज़ा की तख़्लीक़ में ऐ गुलचीनो
जाने क़ुदरत ने लुटाए हैं ख़ज़ाने कितने
मेरी रूदाद को सब अपना फ़साना समझे
इक फ़साने में हैं पोशीदा फ़साने कितने
हौसला बख़्शा है जीने का उन्ही ख़्वाबों ने
हम ने देखे हैं 'ख़लिश' ख़्वाब सुहाने कितने
ग़ज़ल
भूक से बच्चे बिलकते हैं न जाने कितने
ख़लिश कलकत्वी