भुलाता हूँ मगर ग़म की दरख़शानी नहीं जाती
वो आईना मुक़ाबिल है कि हैरानी नहीं जाती
निगाह-ए-शौक़ से ता-देर हैरानी नहीं जाती
शबाब आया तो ज़ालिम शक्ल पहचानी नहीं जाती
तुझे देखूँ कि तेरे इल्तिफ़ात-ए-नर्म को समझूँ
मोहब्बत भी तिरे जल्वों में पहचानी नहीं जाती
सहाब ओ सैल धो सकते नहीं गर्द-ए-फ़लाकत को
बहार आई मगर दुनिया की वीरानी नहीं जाती
कहाँ तक साथ दे सकती हैं आँखें सोज़िश-ए-दिल का
बहुत रोया मगर ग़म की गिराँ-जानी नहीं जाती
जवानी को गुनाहों से अलग करना नहीं मुमकिन
ये वो मय है जो फ़र्त-ए-कैफ़ से छानी नहीं जाती
मोहब्बत तार-तार-ए-पैरहन कर अपने काँटों से
कि इन फूलों से मेरी तंग-दामानी नहीं जाती
'नुशूर' इस वक़्त भी दुनिया असीर-ए-मुल्क-ओ-दौलत है
अभी फ़िक्र ओ नज़र ता-हद्द-ए-इंसानी नहीं जाती
ग़ज़ल
भुलाता हूँ मगर ग़म की दरख़शानी नहीं जाती
नुशूर वाहिदी