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भुलाता हूँ मगर ग़म की दरख़शानी नहीं जाती | शाही शायरी
bhulata hun magar gham ki daraKHshani nahin jati

ग़ज़ल

भुलाता हूँ मगर ग़म की दरख़शानी नहीं जाती

नुशूर वाहिदी

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भुलाता हूँ मगर ग़म की दरख़शानी नहीं जाती
वो आईना मुक़ाबिल है कि हैरानी नहीं जाती

निगाह-ए-शौक़ से ता-देर हैरानी नहीं जाती
शबाब आया तो ज़ालिम शक्ल पहचानी नहीं जाती

तुझे देखूँ कि तेरे इल्तिफ़ात-ए-नर्म को समझूँ
मोहब्बत भी तिरे जल्वों में पहचानी नहीं जाती

सहाब ओ सैल धो सकते नहीं गर्द-ए-फ़लाकत को
बहार आई मगर दुनिया की वीरानी नहीं जाती

कहाँ तक साथ दे सकती हैं आँखें सोज़िश-ए-दिल का
बहुत रोया मगर ग़म की गिराँ-जानी नहीं जाती

जवानी को गुनाहों से अलग करना नहीं मुमकिन
ये वो मय है जो फ़र्त-ए-कैफ़ से छानी नहीं जाती

मोहब्बत तार-तार-ए-पैरहन कर अपने काँटों से
कि इन फूलों से मेरी तंग-दामानी नहीं जाती

'नुशूर' इस वक़्त भी दुनिया असीर-ए-मुल्क-ओ-दौलत है
अभी फ़िक्र ओ नज़र ता-हद्द-ए-इंसानी नहीं जाती