भुलाने के लिए राज़ी तुझे ये दिल नहीं होता
तभी तो याद से तेरी कभी ग़ाफ़िल नहीं होता
मोहब्बत को अभी तक मैं ने अपनी राज़ रक्खा है
तुम्हारा ज़िक्र यूँ मुझ से सारे महफ़िल नहीं होता
तुझे ही ढूँढता रहता मैं अपने आप में हर-दम
सनम तू मेरे जीवन में अगर शामिल नहीं होता
दग़ा देना ही आदत बन गई हो जिस की ऐ यारो
भरोसे के कभी वो आदमी क़ाबिल नहीं होता
हमेशा बीज बोता है जो नफ़रत के ज़माने में
उसे 'संतोष' जीवन में कभी हासिल नहीं होता
ग़ज़ल
भुलाने के लिए राज़ी तुझे ये दिल नहीं होता
संतोष खिरवड़कर