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भुगत रहा हूँ ख़ुद अपने किए का ख़म्याज़ा | शाही शायरी
bhugat raha hun KHud apne kiye ka KHamyaza

ग़ज़ल

भुगत रहा हूँ ख़ुद अपने किए का ख़म्याज़ा

शाकिर ख़लीक़

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भुगत रहा हूँ ख़ुद अपने किए का ख़म्याज़ा
टपक रहा है जो आँखों से ये लहू ताज़ा

किसी की याद के साए को हम-सफ़र समझा
लगा सको तो लगा लो जुनूँ का अंदाज़ा

किसे मजाल कि अब मेरे दिल में घर कर ले
है गरचे अब भी खुला अपने दिल का दरवाज़ा

निगार-ए-वक़्त ने हर-सू कमंद डाली है
बिखर न जाए कहीं अंजुमन का शीराज़ा

ख़ुदा गवाह है उन को भी दे रहा हूँ दुआ
जो कसते रहते हैं 'शाकिर' पे रोज़ आवाज़ा