भीड़ में कोई शनासा भी नहीं छोड़ती है
ज़िंदगी मुझ को अकेला भी नहीं छोड़ती है
आफ़ियत का कोई गोशा भी नहीं छोड़ती है
और दुनिया मिरा रस्ता भी नहीं छोड़ती है
मुझ को रुस्वा भी बहुत करती है शोहरत की हवस
और शोहरत मिरा पीछा भी नहीं छोड़ती है
हम को दो घोंट की ख़ैरात ही दे दो वर्ना
प्यास पागल हो तो दरिया भी नहीं छोड़ती है
आबरू के लिए रोती है बहुत पिछले पहर
एक औरत कि जो पेशा भी नहीं छोड़ती है
डूबने वाले के हाथों में ये पागल दुनिया
एक टूटा हुआ तिनका भी नहीं छोड़ती है
अब के जब गाँव से लौटे तो ये एहसास हुआ
दुश्मनी ख़ून का रिश्ता भी नहीं छोड़ती है
क्या मुकम्मल है जुदाई कि बिछड़ जाने के ब'अद
तुझ से मिलने का बहाना भी नहीं छोड़ती है
जानते सब थे कि नफ़रत की ये काली आँधी
दश्त तो दश्त हैं दरिया भी नहीं छोड़ती है

ग़ज़ल
भीड़ में कोई शनासा भी नहीं छोड़ती है
मेराज फ़ैज़ाबादी