EN اردو
भीड़ है बर-सर-ए-बाज़ार कहीं और चलें | शाही शायरी
bhiD hai bar-sar-e-bazar kahin aur chalen

ग़ज़ल

भीड़ है बर-सर-ए-बाज़ार कहीं और चलें

ऐतबार साजिद

;

भीड़ है बर-सर-ए-बाज़ार कहीं और चलें
आ मिरे दिल मिरे ग़म-ख़्वार कहीं और चलें

कोई खिड़की नहीं खुलती किसी बाग़ीचे में
साँस लेना भी है दुश्वार कहीं और चलें

तू भी मग़्मूम है मैं भी हूँ बहुत अफ़्सुर्दा
दोनों इस दुख से हैं दो-चार कहीं और चलें

ढूँडते हैं कोई सरसब्ज़ कुशादा सी फ़ज़ा
वक़्त की धुँद के उस पार कहीं और चलें

ये जो फूलों से भरा शहर हुआ करता था
उस के मंज़र हैं दिल-आज़ार कहीं और चलें

ऐसे हँगामा-ए-महशर में तो दम घुटता है
बातें कुछ करनी हैं इस बार कहीं और चलें