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भटक रही है रूह के अंदर लज़्ज़त सूखी गीली सी | शाही शायरी
bhaTak rahi hai ruh ke andar lazzat sukhi gili si

ग़ज़ल

भटक रही है रूह के अंदर लज़्ज़त सूखी गीली सी

खुर्शीद अकबर

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भटक रही है रूह के अंदर लज़्ज़त सूखी गीली सी
जैसे रस्ता भूल गई हो एक नदी पथरीली सी

मेरे उस के बीच का रिश्ता इक मजबूर ज़रूरत है
मैं सूखे जज़्बों का ईंधन वो माचिस की तीली सी

देखूँ कैसी फ़स्ल उगाता है मौसम तन्हाई का
दर्द के बीज की नस्ल है ऊँची दिल की मिट्टी गीली सी

दरवाज़े पर मुँह लटकाए क़िल्लत रंग-ओ-रोग़न की
आँगन आँगन जश्न मनाए ख़्वाहिश नीली पीली सी

मुझ को बाँट के रख देती है धूप छाँव के ख़ेमों में
कुछ बे-ग़ैरत सी मसरूफ़ी कुछ फ़ुर्सत शर्मीली सी

दिन भर की जाँ-सोज़ थकन का अज्र चुकाने को 'ख़ुर्शीद'
शाम के पर्बत पर बैठी है इक साअ'त नोकीली सी