भटक रहा हूँ कि गिर कर सँभल रहा हूँ मैं
किसी तरह से तो रस्ते पे चल रहा हूँ मैं
नवाज़िशात की हद से निकल रहा हूँ मैं
हटा ले हाथ कि करवट बदल रहा हूँ मैं
जुनूँ में अक़्ल की सौदागरी भी की मैं ने
निगाह-ए-नाज़ से दुनिया बदल रहा हूँ मैं
हवा-ए-ग़म से घिरा है चराग़ हस्ती का
सँभालना कि तिरे पास जल रहा हूँ मैं
किसी भी साँचे में क़िस्मत न ढल सकी अब तक
हज़ार सोज़-ए-तपिश से पिघल रहा हूँ मैं
वो आ चले वो अभी आए देख लो 'राज़ी'
ज़रा सी देर है रुक जाओ चल रहा हूँ मैं
ग़ज़ल
भटक रहा हूँ कि गिर कर सँभल रहा हूँ मैं
ख़लील राज़ी