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भरपूर मोहब्बत का एलान मुकम्मल है | शाही शायरी
bharpur mohabbat ka elan mukammal hai

ग़ज़ल

भरपूर मोहब्बत का एलान मुकम्मल है

महमूद बेग साज़

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भरपूर मोहब्बत का एलान मुकम्मल है
उस नीम-निगाही का फ़रमान मुकम्मल है

या दुश्मन-ए-जाँ मुझ पर सच-मुच है करम-फ़रमा
या मेरी तबाही का सामान मुकम्मल है

किस चाव से इक बस्ती जो हम ने बसाई थी
देखा था वही बस्ती वीरान मुकम्मल है

ज़ख़्मों पे मिरे तू ने जिस तरह नमक छिड़का
इस नीम इनायत का एहसान मुकम्मल है

हर मोड़ पे मिलता है अल्लाह का वो बंदा
क़ालिब में जो इंसाँ के शैतान मुकम्मल है

ऐ 'साज़' मिरे दिल में अब जान नहीं बाक़ी
गो ख़ून का रग रग में दौरान मुकम्मल है