भरी रात में जागना पड़ गया है
तिरे बारे में सोचना पड़ गया है
किसी ख़्वाब की फिर से दस्तक है शायद
दर-ए-दिल मुझे खोलना पड़ गया है
तिरी सोच भी सोचनी पड़ गई है
तिरा लहजा भी बोलना पड़ गया है
धुआँ बन के साँसों में चुभने लगी थी
ख़मोशी को अब तोड़ना पड़ गया है
जहाँ रेज़ा रेज़ा मैं बिखरी पड़ी थी
वो मंज़र मुझे जोड़ना पड़ गया है
ये क्या सरसराहट हुई मेरे दिल में
क़लम रोक कर सोचना पड़ गया है
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ग़ज़ल
भरी रात में जागना पड़ गया है
नाहीद विर्क