भरे मोती हैं गोया तुझ दहन में
कि दुर-रेज़ी तू करता है सुख़न में
बहार-आरा वही है हर चमन में
उसी की बू है नसरीन-ओ-समन में
न फिर ईधर उधर नाहक़ भटकता
कि है वो जल्वा-गर तेरे ही मन में
जहाँ वो है नहीं वाँ कुफ़्र ओ इस्लाम
अबस झगड़ा है शैख़ ओ बरहमन में
हुई जाती है पानी शर्म से शम्अ
मगर वो माह आया अंजुमन में
छुड़ाया था निपट मुश्किल से फिर आह
दिल अटका उस की ज़ुल्फ़-ए-पुर-शिकन में
जुनूँ ने दस्त-कारी ऐसी भी की
न था गोया गरेबाँ पैरहन में
मरा जाता है जिस ग़ैरत में दरिया
गिरा किस का है दिल चाह-ए-ज़क़न में
मगर परवाना जल कर हो गया ख़ाक
कि रो-रो शम्अ जलती है लगन में
जो सुनते थे दम-ए-ईसा का एजाज़
सो देखा हम ने वो तेरे सुख़न में
न देखा उस परी-जल्वा को 'बेदार'
रहा मशग़ूल तू याँ मा-ओ-मन में
ग़ज़ल
भरे मोती हैं गोया तुझ दहन में
मीर मोहम्मदी बेदार