भर पाए जान-ए-ज़ार तिरी दोस्ती से हम
जीते रहे तो अब न मिलेंगे किसी से हम
हैं क़ाफ़िले के साथ मगर है रविश जुदा
मिलते हैं सब से और नहीं मिलते किसी से हम
ज़िक्र-ए-शराब-ए-नाब पे वाइ'ज़ उखड़ गया
बोले थे अच्छी बात भले आदमी से हम
पाबंद-ए-दैर हो के भी भूले नहीं हैं घर
मस्जिद में जा निकलते हैं चोरी छुपी से हम
दुनिया बदल गई है बदल से गए हैं कुछ
अपनी ख़ुशी बदल के तुम्हारी ख़ुशी से हम
जाते कहाँ मिला न फिर अपना पता कहीं
पहुँचे तो थे भटक गए उन की गली से हम
'नातिक़' हमी को दिल ने तो काफ़िर बना दिया
अब क्या कहें कि हार गए बिदअती से हम
ग़ज़ल
भर पाए जान-ए-ज़ार तिरी दोस्ती से हम
नातिक़ गुलावठी