भर नहीं पाया अभी तक ज़ख़्म-ए-कारी हाए हाए 
दिल को थामे हैं लहू फिर भी है जारी हाए हाए 
दर्द का एहसास घट जाता अगर चाहे कोई 
हो रही है और उल्टे दिल-फ़िगारी हाए हाए 
जिस्म तो पहले ही ज़ख़्मी था मगर बाक़ी था दिल 
अब अदू के हाथ में ख़ंजर है भारी हाए हाए 
हिज्र में वैसे भी आती है मुसीबत जान पर 
पर रक़ीबों की अलग है ख़ंदा-कारी हाए हाए 
रेज़ा रेज़ा कर दिया ज़ालिम ने सारे जिस्म को 
उड़ रही है ख़ाक पैरों पर हमारी हाए हाए 
दिल गिरफ़्ता हो के चुप बैठे हैं शायद इस तरह 
रहम आए देख कर सूरत हमारी हाए हाए 
दस्त-ए-क़ातिल सैद बनने से नहीं रुकता कभी 
है अबस बेचारगी-ओ-आह-ओ-ज़ारी हाए हाए 
जो परिंदे उड़ नहीं सकते अब उन की ख़ैर हो 
आने वाला है इसी जानिब शिकारी हाए हाए 
राह से पत्थर उठा कर सू-ए-ज़ालिम फेंक दे 
गर नहीं तीरों की तुझ में ज़र्ब-कारी हाए हाए 
एक क़िबला इक अज़ाँ और एक मज्लिस इक इमाम 
काश आ जाए समझ में ये तुम्हारी हाए हाए
        ग़ज़ल
भर नहीं पाया अभी तक ज़ख़्म-ए-कारी हाए हाए
अनीस अंसारी

