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भर गए ज़ख़्म तो क्या दर्द तो अब भी कोई है | शाही शायरी
bhar gae zaKHm to kya dard to ab bhi koi hai

ग़ज़ल

भर गए ज़ख़्म तो क्या दर्द तो अब भी कोई है

शाहिद कमाल

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भर गए ज़ख़्म तो क्या दर्द तो अब भी कोई है
आँख रोती है तो रोने का सबब भी कोई है

पी गई ये मिरी तन्हाई मिरे दिल का लहू
क़तरा-ए-अश्क पे ये जश्न-ए-तरब भी कोई है

मौत से तल्ख़ है शायद तिरी रहमत का अज़ाब
जिस को कहते हैं ग़ज़ब ऐसा ग़ज़ब भी कोई है

रोज़ गुलशन में यही पूछती फिरती है सबा
तेरे फूलों में मिरा ग़ुंचा-ए-लब भी कोई है

उस के पहलू से बहुत दूर मिरे दिल के क़रीब
ऐसा लगता है कि बैठा हुआ अब भी कोई है

जो अलामत हो तिरे हल्क़ा-ए-उश्शाक़ के बीच
तुझ से निस्बत के लिए ऐसा लक़ब भी कोई है

'शाहिद' उस सिलसिला-ए-इश्क़ से वाबस्ता हूँ
जिस में ख़ुद 'मीर' सा इक आली-नसब भी कोई है